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प्रार्थना | Lesson On Different Types Of Prayer

प्रार्थना Lesson On Different Types Of Prayer

प्रार्थना | Lesson On Different Types Of Prayer


प्रार्थना सार्वभौमिक है। उस क्रूर के विरोध मनुष्य के भीतर आत्मा का प्रमाण है। पशुओं में यह नहीं। मनुष्य संकट में परमेश्वर को पुकारता है। हे तू जो प्रार्थना को सुनता है तेरे पास मनुष्य आएंगे। यहां तक कि अविश्वासी भी संकट के समय सर्वशक्तिमान को पुकारता है। परमेश्वर यदा-कदा ऐसे को उत्तर व छुटकारा देता है (योना, 1:14,16)। सामान्य मसीहित में प्रार्थना सर्वज्ञानी, सर्वप्रेमी और सर्वशक्तिमान पिता परमेश्वर को एक बालक की विनती है। केवल बालक जो पिता को जो जानते हैं बुद्धिमान से उस से प्रार्थना कर सकते हैं ( 1 योहन्ना 2:13 )। यह अविश्वासी को इस पवित्र क्रिया से वंचित करता है।



1. प्रार्थना का स्थान

पुराने नियम और नए नियम में प्रार्थना के बहुत से उदाहरण पाए जाते हैं। शेत के समय से लोग यहोवा के नाम को पुकारने लगे (उत्पत्ति 4:26)  पवित्र शास्त्र के अंत में भी आत्मा और दुल्हन की उद्धार कर्ता पूर्णआगमन हेतु प्रार्थना है। (प्रकाशितवाक्य 22:17) बाइबिल में स्त्री पुरुषों ने परमेश्वर से याचनायें की है। भविष्यवक्ताओं (1 शमुएल 12:23), याजकों (गिनती 6:23:27)‌। यही इसराइल के सभी अगुवों के लिए भी सत्य है इब्राहिम, मूसा, यहोशू, सुलेमान, एलियाह इसके कुछ उदाहरण है।


नए नियम में अक्सर अपने प्रभु से प्रार्थना करते पाते हैं‌। लूका का सुसमाचार जो भी उसकी मानवता का सुसमाचार है। उसमें वह 7 बार प्रार्थना करता है। सत्य तो यह है कि उसका पूरा जीवन उसके बपतिस्मा (लूका 3:21) से लेकर क्रूस पर अंतिम चिल्लाहट प्रेरितों के काम और 21 पत्रियों में ऐसे बहुत अवसर मिलते हैं। हम प्रार्थना में उसके मुख के दर्शन करने हेतु आशा थी गई है। यह एक अधिकारी और स्वस्थ मसीही का चिन्ह है। किसी बात की चिंता मत करो, परन्तु हर एक बात तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और विनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख उपस्थित किए जाएं (फिलिप्पियां 4:6)। कितनों के लिए ऐसा कहा जा सकता है,देखो, यह प्रार्थना करने वाला है।


2. प्रार्थना का नमूना

मत्ती 6:9,13 में प्रभु यीशु मसीह द्वारा प्रार्थना का नमूना दिया गया है। जिसे प्रभु का प्रार्थना कहते हैं। उसके शब्द नहीं तुम इस रीति से प्रार्थना किया करो। यह मनसा नहीं थी कि उसी रूप में वैसे ही प्रयोग करें तथा इसका कोई भी प्रणाम नहीं कि प्रारंभिक कलीसिया इसका प्रयोग करते ऐसे ही करती थी। परंतु नमूने के रूप में वह सचमुच निपुण है। यह सिखाती है कि सही प्रार्थना आराधना के साथ शुरू होती है। राज्य के हितों को अपने व्यक्तिगत हितों से पहले रखती हैं, वैसे यह न देने पर परमेश्वर की इच्छा को सर्वोपरि ग्रहन करती है और वर्तमान की आवश्यकताओं व भविष्य को परमेश्वर में देखभाल और प्रेम को छोड़ देते हैं।


3. प्रार्थना के सिद्धांत

1. हमें प्रार्थना कब करनी चाहिए? इसका साधारण उत्तर है कि 'हर समय' यह जानना कितना अच्छा है कि उसके काम सर्वदा हमारी प्रार्थना की और लगे रहते हैं। 

( 1 थिस 5:17, कुलिस्सियों 4:2, इफिसियों 6:18 )


2. हमें प्रार्थना कहां करनी चाहिए? "मैं चाहता हूं, कि हर जगह पुरुष बिना क्रोध और विवाद के पवित्र हाथों को उठाकर प्रार्थना किया करें" ( 1 तीमुथियुस 2:8)।


3. हमें प्रार्थना कैसी करनी चाहिए? क्रूस से पहले, एक बड़ा पर्दा पवित्र परमेश्वर को उसकी सृष्टि से अलग रखता है। लोग दूर-दूर खड़े होते थे और परमेश्वर घने अंधकार में वास करता था ( निर्गमन 20, 21)। परंतु क्रूस के दिन पर्दा फट गया। यह दूरी हट गई और नियंत्रण दिया गया है। आइये निकट आयें (इब्रानियों 10:19,22)। प्रत्येक विश्वासी पवित्र आत्मा के द्वारा पुत्र के साथ परमेश्वर के निकट सीधे जा सकता है। पिता को पाप के प्रति संतुष्ट किया गया है और इसलिए अनुग्रह का सिंहासन खुल गया है। हम दया प्राप्त कर सकते हैं और आवश्यकता के समय अनुग्रह पा सकते हैं (इब्रानियों 4:13)।


अब हमें हियाव के साथ आना है। हमें लापरवाही के साथ कदापि नहीं आना चाहिए। हम आत्मनिरीक्षण और निर्भयता के साथ आते हैं। हमें यह स्मरण रखना कि हम प्रेमी पिता के पास आ रहे हैं। वह अनंत परमेश्वर भी है। वह जो उसके निकट आते हैं उन्हें उसका आदर करना चाहिए। केवल वही जिनके हाथ निर्दोष और हृदय पवित्र है, परमेश्वर के पहाड़ पर चल सकता है। (भजन संहिता 24:3,4) 


इसके साथ रोमियो (8:26,27) से सिखतें हैं कि पवित्र आत्मा बुद्धिमान से परमेश्वर से हमारे हृदय के बोझों और कराहने का अनुवाद करता है। पवित्र आत्मा की शक्ति से सदैव सच्ची प्रार्थना होती है (इफिसियों 6:18, यहूदा 20)।


हमारी याचनाएं प्रभु यीशु के नाम में होना चाहिए ( योहन्ना 14:13,14)। यह हमारी प्रार्थना को समाप्त करने की उचित विधि है परंतु उसके नाम से प्रार्थना करना उससे अधिकार से मांगना हैं। उसके अधिकार से मांगना उसके वचन में प्रकट उसके इच्छा अनुसार मांगना है।


अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि सच्ची प्रार्थना सदैव उसकी इच्छा अनुसार होनी चाहिए (ध्यान पूर्वक मनन करें यूहन्ना 5:14-15 )। हमारा स्वयं का जीवन आज्ञाकारीता का होना चाहिए। तब हम स्वर्ग से प्रति उत्तरों को पाएंगे ( योहन्ना 15: 7)। विशिष्टता और निरंतरता से प्रसन्न होता है। (लूका 11:3,10,18:1,18)।



4. प्रार्थना की सामर्थ्य 

धर्मी जन की प्रभावी निरन्तर प्रार्थना से सब कुछ हो सकता है। प्रार्थना उसकी सामर्थ्य को हमारे लिए प्रभावी करती है। एलियाह का उदाहरण इसे दर्शाता है ( याकूब 5:16,18)


5. प्रार्थना की बाधायें

हमारी इच्छा अनुसार सभी प्रार्थनाओं का उत्तर नहीं मिलता है। आइये स्मरण रखें की देर है पर अंधेर नहीं। परमेश्वर सर्वज्ञानी है और जानता है कि हमारे लिए सर्वोत्तम क्या है? यदि माता अपने बालकों को हां ही कहे तो वह उसे अधिक मिठाई खिला देगी।


विश्वासी के जीवन में प्रार्थना को अप्रभावी और स्वर्ग से उत्तर प्राप्त करने में बाधा के संकेत एवं प्रकार से है-


(क) पाप ( यशायाह 59:1-2, भजन 66:18, यूहन्ना 3:20,22)।

(ख) क्षमा न करने वाली आत्मा ( मारकुस 11:23,26)।

(ग) पारिवारिक जीवन में गलत दृष्टिकोण ( 1 पतरस 3:1-7)।

(घ) संदेश (याकूब 1:6,7)


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