जिस प्रकार भौतिक संसार को संचालित करने के लिए भौतिक नियम हैं, वैसे ही आध्यात्मिक नियम भी हैं, जो आपके एवं परमेश्वर के सम्बन्ध का निर्धारण करते हैं।
नियम 1
परमेश्वर आपको प्रेम करते हैं, और आपके जीवन के लिए उनकी एक अद्भुत योजना है।
परमेश्वर का प्रेम
"परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उन्होंने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो परन्तु अनन्त जीवन पाए।" (यूहन्ना 3:16)
परमेश्वर की योजना
यीशु ने कहा- "मैं इसलिए आया कि वे जीवन पाएं, और बहुतायत से पाएँ।" फिर क्या कारण है कि अधिकांश लोग बहुतायत के जीवन का अनुभव नहीं करते हैं? क्योंकि :-
नियम 2
मनुष्य ने पाप किया और परमेश्वर से उसका सम्बन्ध टूट गया, इसलिए वह परमेश्वर के प्रेम और अपने जीवन के लिए उसकी योजनाओं को न तो जान सकता है और न ही अनुभव कर सकता है।
मनुष्य पापी है
मनुष्य को इसलिए रचा गया था कि वह परमेश्वर की संगति में रहे, परन्तु वह अपनी मर्जी के अनुसार चलने का फैसला कर लिया इस प्रकार परमेश्वर से उसका सम्बन्ध टूट गया, उसकी यह मर्जी जो परमेश्वर का विरोध या उसकी उपेक्षा के रूप में प्रकट होती है, इसे बाईबल पाप की संज्ञा देता है।
"....इसलिए कि सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित है।" रोमियों 3:23
......जो कोई सारी व्यवस्था का पालन करता है परन्तु एक ही बात में चूक जाए, तो वह सब बातों में दोषी ठहरा।" (याकूब 2:10)
मनुष्य परमेश्वर से अलग हो गया
"पाप की मजदूरी तो मृत्यु है।"
(मृत्यु = परमेश्वर से आत्मिक अलगाव) रोमियों 6:23
इस चित्र के उदाहरण के अनुसार ईश्वर पवित्र है और मनुष्य पापी। पाप की एक विशाल - खाई दोनों को अलग करती है। मनुष्य निरंतर अपने अच्छे कर्मों, सिद्धान्तों व दर्शनों इत्यादि के माध्यम से परमेश्वर तथा बहुतायत के जीवन तक पहुँचने का प्रयत्न कर रहा है।
परन्तु मनुष्य के सारे उत्तम प्रयास पर्याप्त नहीं हैं. क्योंकि "हमारे सब धर्म के कार्य मैले चिथड़ों के समान है।” (यशायाह 64:6)
मनुष्य के इस समस्या का एकमात्र हल तीसरा नियम देता है।
नियम 3
केवल यीशु मसीह ही मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर द्वारा दिये गये साधन हैं। उसके द्वारा आप परमेश्वर के प्रेम और आपके जीवन के लिए उसकी योजना जो आपके जीवन के लिए है उसे जान सकते हैं तथा अनुभव कर सकते हैं।
वह हमारे लिए बलिदान हुआ
"परमेश्वर हम पर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रकट करता है, कि जब हम पापी ही थे, तभी मसीह हमारे लिए मरा।"
(रोमियों 5:8)
वह मरे हुओं में से जी भी उठा
"मसीह हमारे पापों के लिए मर गया ... गाड़ा गया... और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा... और कैफा को तब बारहों को दिखाई दिया। फिर पाँच सौ से अधिक भाइयों को एक साथ दिखाई दिया...।" (1 कुरि. 15:3-6)
वही एकमात्र मार्ग है
यीशु ने कहा, "मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूँ, बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता।" (यूहन्ना 14:6)
जो खाई हमें परमेश्वर से अलग करती थी, उसे उसने अपने पुत्र यीशु के द्वारा मिला दिया, जो सलीब पर हमारे बदले प्राण दिया।
नियम 4
हमें व्यक्तिगत रूप से यीशु मसीह को अपना मुक्तिदाता व प्रभु स्वीकार करना होगा; तब ही हम परमेश्वर के प्रेम तथा उनकी योजना जो हमारे जीवन के लिए है जान सकते हैं।
हमें यीशु को ग्रहण करना आवश्यक है
"जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात् उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास करते हैं। (यूहन्ना 1:12)
हम यीशु को विश्वास द्वारा स्वीकार करते हैं
""विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन् परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे।" (इफिसियों 2: 8,9)
यीशु कहता है- "देख मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ, यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूँगा, और वह मेरे साथ।' (प्रकाशितवाक्य 3: 20)
यीशु को स्वीकार करने का अर्थ है अहम् की ओर से परमेश्वर की ओर फिरना, और यीशु पर विश्वास करना है, कि वह हमारे जीवन में आ कर हमारे पापों को क्षमा करेंगे, और जैसा व्यक्ति हमें बनाना चाहते हैं. वैसा बनायेंगे। बौद्धिक रूप से इस बात पर सहमत होना काफी नहीं है कि यीशु मसीह परमेश्वर का पुत्र है और हमारे पापों के लिए क्रूस पर मरा और न ही भावनात्मक अनुभूति प्राप्त करना काफी है। हम यीशु मसीह को अपनी इच्छा से विश्वास के द्वारा ग्रहण करते हैं।
ये दो वृत्त दो प्रकार के जीवन को दर्शाते हैं
आपके लिए दो प्रश्न -
- कौन सा वृत्त आपके जीवन को दर्शाता है ?
- आप किस वृत के समान अपने जीवन को बनाना चाहते हैं ?
निम्नलिखित बातों से आप जान सकते हैं कि आप यीशु को कैसे ग्रहण कर सकते हैं :-
आप इसी क्षण प्रार्थना के द्वारा को ग्रहण कर सकते हैं:
(प्रार्थना परमेश्वर के साथ बातचीत है)
ईश्वर आपके मन को जानते हैं और वह आपके शब्दों में उतनी रूचि नहीं लेते जितनी आपके मन में । यहाँ एक प्रार्थना का उदाहरण है :-
"प्रभु यीशु मुझे आपकी आवश्यकता है। मैं अपने जीवन का द्वार खोलकर आपको अपने प्रभु और मुक्तिदाता के रूप में ग्रहण करता हूँ। मेरे सारे पापों को क्षमा करने के लिए आपका धन्यवाद। मेरे जीवन के सिंहासन पर आप अपना नियंत्रण रखें। जैसा व्यक्ति आप मुझे बनाना चाहते हैं, वैसा ही बनाएँ। आमीन।”
- क्या यह प्रार्थना आपके हृदय की इच्छा को प्रकट करती है ?
यदि हाँ तो आप इसी क्षण यह प्रार्थना कीजिए और यीशु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आपके जीवन में आएंगे।
कैसे जानें कि यीशु आपके जीवन में हैं ?
प्रार्थना करते समय क्या आपने यीशु जीवन ग्रहण किया ? प्रकाशितवाक्य 3:20 में दी हुई उसकी प्रतिज्ञानुसार यीशु आपके जीवन में कहाँ है? यीशु ने कहा कि वे आपके जीवन में आएंगे, क्या वह आपको गलत रास्ता दिखाएंगे? आप किस प्रकार जान सकते हैं कि परमेश्वर ने आपकी प्रार्थना सुन ली है? (परमेश्वर और उनके वचन पर विश्वास करने के द्वारा)
जो यीशु को ग्रहण करते हैं बाइबल उन्हें अनन्त जीवन का वचन देता है
"और वह गवाही यह है, कि परमेश्वर ने हमें अनन्त जीवन दिया है : और यह जीवन उनके पुत्र में है। जिसके पास परमेश्वर का पुत्र है, उसके पास जीवन है, और जिसके पास परमेश्वर का पुत्र नहीं, उसके पास जीवन भी नहीं है। मैंने तुम्हें, जो परमेश्वर के पुत्र पर विश्वास करते हो, इसलिए लिखा है, कि तुम जानो, कि अनन्त जीवन तुम्हारा है।" (1 यूहन्ना 5:11-13)
परमेश्वर को हमेशा धन्यवाद दें कि यीशु आपके जीवन में हैं और वे आपको कभी नहीं छोड़ेंगे। (इब्रानियों 13 : 5) आप जान सकते हैं कि जीवित यीशु आप में रहते हैं और आपके पास अनन्त जीवन उसी क्षण से है जब से आपने उन्हें उनकी प्रतिज्ञानुसार निमंत्रित किया। वे आपको धोखा नहीं देंगे।
हमारी भावनाएं क्या हैं? भावनाओं पर निर्भर न रहें
हमारा आधार परमेश्वर का वचन बाइबल है, न कि हमारी भावनाएं। यह रेलगाड़ी का चित्र एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह तथ्य (परमेश्वर व उनका वचन ) विश्वास (परमेश्वर तथा उनके वचन में हमारा विश्वास) तथा भावनाएं (हमारे विश्वास तथा आज्ञाकारिता का परिणाम) के बीच सम्बन्ध दर्शाता है।
- यीशु आपके जीवन में आए (प्रकाशितवाक्य 3:20. कुलुस्सियों 1:27)
- आपके सारे पाप क्षमा हो गए (कुलुस्सियों 1:14)
- आप परमेश्वर के सन्तान बन गए (यूहन्ना 1:12)
- आपने वह महान कार्य करना प्रारम्भ कर दिया, जिसके लिए परमेश्वर ने आपको रचा था। (यूहन्ना 10:10, कुरिन्थियों 5:17 तथा 1 थिस्सलुनीकियों 5:18)
- प्रार्थना में परमेश्वर से प्रतिदिन मिलें। (यूहन्ना 15:7)
- परमेश्वर का वचन अर्थात् बाइबल पढ़ें यूहन्ना रचित सुसमाचार से आरम्भ करें। (प्रेरितों के काम 17:11)
- प्रतिपल परमेश्वर की आज्ञा का पालन करें। (यूहन्ना 14:21)
- अपने जीवन शैली तथा बातचीत द्वारा यीशु की साक्षी दें। (मती 4:19, यूहन्ना 15:8)
- जीवन की प्रत्येक क्रिया में परमेश्वर पर विश्वास रखें। (1 पतरस 5:7)
- पवित्र आत्मा को अपने दैनिक जीवन तथा गवाही देने में नियन्त्रण करने और सामर्थ प्रदान करने का अवसर दें। गलातियों 5:16, 17, प्रेरितों के काम 1:8)
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